इस सृष्टि में बदलाहटपन स्वाभाविक है। लेकिन इस बदलाहटपन में भी एक नियमितता है। एक नियत समय पर हीं दिन आता है, रात होती है। एक नियत समय पर हीं मौसम बदलते हैं। क्या हो अगर दिन रात में बदलने लगे? समुद्र सारे नियमों को ताक पर रखकर धरती पर उमड़ने को उतारू हो जाए? सीधी सी बात है , अनिश्चितता का माहौल बन जायेगा l भारतीय राजनीति में कुछ इसी तरह की अनिश्चितता का माहौल बनने लगा है। माना कि राजनीति में स्थाई मित्र और स्थाई शत्रु नहीं होते , परंतु इस अनिश्चितता के माहौल में कुछ तो निश्चितता हो। इस दल बदलू, सत्ता चिपकू और पलटूगिरी से जनता का भला कैसे हो सकता है? प्रस्तुत है मेरी व्ययंगात्मक कविता "मान गए भई पलटू राम"।
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तेरी पर चलती रहे दुकान,
मान गए भई पलटू राम।
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कभी भतीजा अच्छा लगता,
कभी भतीजा कच्चा लगता,
वोहीं जाने क्या सच्चा लगता,
ताऊ का कब नया पैगाम ,
अदलू, बदलू, डबलू राम,
तेरी पर चलती रहे दुकान।
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जहर उगलते अपने चाचा,
जहर निगलते अपने चाचा,
नीलकंठ बन छलते चाचा,
अजब गजब है तेरे काम ,
ताऊ चाचा रे तुझे प्रणाम,
तेरी पर चलती रहे दुकान।
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केवल चाचा हीं ना कम है,
भतीजा भी एटम बम है,
कल गरम था आज नरम है,
ये भी कम ना सलटू राम,
भतीजे को भी हो सलाम,
तेरी पर चलती रहे दुकान।
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मौसम बदले चाचा बदले,
भतीजे भी कम ना बदले,
पकड़े गर्दन गले भी पड़ले।
क्या बच्चा क्या चाचा जान,
ये भी वो भी पलटू राम,
इनकी चलती रहे दुकान।
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कभी ईधर को प्यार जताए,
कभी उधर पर कुतर कर खाए,
कब किसपे ये दिल आ जाए,
कभी ईश्क कभी लड़े धड़ाम,
रिश्ते नाते सब कुर्बान,
तेरी पर चलती रहे दुकान।
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थूक चाट के बात बना ले,
जो मित्र था घात लगा ले,
कुर्सी को हीं जात बना ले,
कुर्सी से हीं दुआ सलाम,
मान गए भई पलटू राम,
तेरी पर चलती रहे दुकान।
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अहम गरम है भरम यही है,
ना आंखों में शरम कहीं है,
सबकुछ सत्ता धरम यही है,
क्या वादे कैसी है जुबान ,
कुर्सी चिपकू बदलू राम,
तेरी पर चलती रहे दुकान।
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चाचा भतीजा की जोड़ी कैसी,
बुआ और बबुआ के जैसी,
लपट कपट कर झटक हो वैसी,
ताक पे रख कर सब सम्मान,
धरम करम इज्जत ईमान,
तेरी पर चलती रहे दुकान।
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अदलू, बदलू ,झबलू राम,
मान गए भई पलटू राम।
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अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
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