इस सृष्टि में कोई भी वस्तु बिना कीमत के नहीं आती, विकास भी नहीं। अभी कुछ दिन पहले एक पारिवारिक उत्सव में शरीक होने के लिए गाँव गया था। सोचा था शहर की दौड़ धूप वाली जिंदगी से दूर एक शांति भरे माहौल में जा रहा हूँ। सोचा था गाँव के खेतों में हरियाली के दर्शन होंगे। सोचा था सुबह सुबह मुर्गे की बाँग सुनाई देगी, कोयल की कुक और चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई पड़ेगी। आम, महुए, अमरूद और कटहल के पेड़ों पर उनके फल दिखाई पड़ेंगे। परंतु अनुभूति इसके ठीक विपरीत हुई। शहरों की प्रगति का असर शायद गाँवों पर पड़ना शुरू हो गया है। इस कविता के माध्यम से मैं अपनी इन्हीं अनुभूतियों को साझा कर रहा हूँ। प्रस्तुत है मेरी कविता "मेरे गाँव में होने लगा है शामिल थोड़ा शहर" का प्रथम भाग।
मेरे गाँव में होने लगा है शामिल थोड़ा शहर
[प्रथम भाग】
मेरे गाँव में होने लगा है,
शामिल थोड़ा शहर,
फ़िज़ा में बढ़ता धुँआ है ,
और थोड़ा सा जहर।
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मचा हुआ है सड़कों पे ,
वाहनों का शोर,
बुलडोजरों की गड़गड़ से,
भरी हुई भोर।
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अब माटी की सड़कों पे ,
कंक्रीट की नई लहर ,
मेरे गाँव में होने लगा है,
शामिल थोड़ा शहर।
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मुर्गे के बांग से होती ,
दिन की शुरुआत थी,
तब घर घर में भूसा था ,
भैसों की नाद थी।
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अब गाएँ भी बछड़े भी ,
दिखते ना एक प्रहर,
मेरे गाँव में होने लगा है ,
शामिल थोड़ा शहर।
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तब बैलों के गर्दन में ,
घंटी गीत गाती थी ,
बागों में कोयल तब कैसा ,
कुक सुनाती थी।
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अब बगिया में कोयल ना ,
महुआ ना कटहर,
मेरे गाँव में होने लगा है ,
शामिल थोड़ा शहर।
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पहले सरसों के दाने सब ,
खेतों में छाते थे,
मटर की छीमी पौधों में ,
भर भर कर आते थे।
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अब खोया है पत्थरों में ,
मक्का और अरहर,
मेरे गाँव में होने लगा है ,
शामिल थोड़ा शहर।
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महुआ के दानों की ,
खुशबू की बात क्या,
आमों के मंजर वो ,
झूमते दिन रात क्या।
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अब सरसों की कलियों में ,
गायन ना वो लहर,
मेरे गाँव में होने लगा है ,
शामिल थोड़ा शहर।
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वो पानी में छप छप ,
कर गरई पकड़ना ,
खेतों के जोतनी में,
हेंगी पर चलना।
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अब खेतों के रोपनी में ,
मोटर और ट्रेक्टर,
मेरे गाँव में होने लगा है ,
शामिल थोड़ा शहर।
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फ़िज़ा में बढ़ता धुँआ है ,
और थोड़ा सा जहर।
मेरे गाँव में होने लगा है,
शामिल थोड़ा शहर।
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अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
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